परिचय: इंजीनियरिंग से अर्थी तक का सफर
राजस्थान के एक छोटे से कस्बे में रहने वाले धीरज शर्मा ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद भी अपने पारंपरिक व्यवसाय को अपनाया — अर्थी बनाना और अंतिम संस्कार से जुड़ी सामग्री की बिक्री। 125 साल पुराने पारिवारिक व्यवसाय को आगे बढ़ाते हुए धीरज ने न केवल परंपरा को बनाए रखा है, बल्कि आधुनिक सोच के साथ इसे एक नई पहचान भी दी है।

दो प्रकार की अर्थी: बांस काटी और बैकुंठी
धीरज के अनुसार अर्थी मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है:
- बांस काटी अर्थी – यह साधारण अर्थी होती है, जो आमतौर पर जवान या कम उम्र में मृत्यु होने पर इस्तेमाल की जाती है। इसे सिरकी और बांस की लकड़ी से घर पर ही तैयार किया जाता है।
- बैकुंठी अर्थी – यह विशेष रूप से बुजुर्गों या सम्मानित व्यक्तियों के लिए बनाई जाती है। इसे ढोल, मंजीरे, झाल, लोटे और घंटियों के साथ सजाया जाता है और रामध्वनि के साथ अंतिम यात्रा निकाली जाती है।
अंतिम संस्कार की परंपराएं: मिट्टी के बर्तन, कपड़ा और सादगी
- छोटे बच्चों के लिए: केवल सवा मीटर कपड़ा इस्तेमाल होता है। लड़का है तो सफेद, लड़की है तो लाल। साथ में दो सिकोरे – एक में दूध-दही और दूसरे में जल रखा जाता है।
- बुजुर्गों के लिए: घी, कफन, लोटे, थाली, चरी (पीतल या स्टील की), नारियल और दुशाले शामिल होते हैं। अर्थी के साथ दी गई सामग्री को चिता में जलाया जाता है।
- बाल त्यागने की परंपरा: बालों को ‘घमंड की निशानी’ माना जाता है और मृत्यु के समय उन्हें त्यागना, आत्मसमर्पण का प्रतीक होता है।
लागत: 1500 से शुरू होकर 3500 तक
धीरज बताते हैं कि अंतिम संस्कार की सामग्री का न्यूनतम पैकेज ₹1500 से शुरू होता है। जैसे-जैसे सामग्री की गुणवत्ता और सजावट बढ़ती है, कीमत ₹3500 या उससे अधिक तक जा सकती है। ग्राहक की श्रद्धा और बजट के अनुसार हर प्रकार की सुविधा दी जाती है।
पारिवारिक परंपरा और भावनात्मक जुड़ाव
धीरज 12 साल की उम्र से ही दुकान पर बैठते आए हैं। उन्होंने बताया कि शुरू में थोड़ी घबराहट होती थी, लेकिन अब उन्हें अपने काम पर गर्व है। यह उनका पुश्तैनी पेशा है, जिसे उनके नाना के पिताजी ने शुरू किया था। धीरज का कहना है, “यह एक सेवा का कार्य है — अंतिम समय में भी किसी का सम्मान बना रहे, यही हमारा मकसद है।”
इंजीनियरिंग की डिग्री, लेकिन मन पारंपरिक व्यवसाय में
धीरज ने B.Tech (इंजीनियरिंग) की पढ़ाई की है, लेकिन फिर भी उन्होंने इस व्यवसाय को चुना क्योंकि यह उन्हें मानसिक संतोष और पारिवारिक जुड़ाव देता है। उनके शब्दों में, “मुझे कभी नहीं लगा कि मुझे नौकरी करनी चाहिए, मुझे शुरू से पता था कि मुझे यही करना है।”
भ्रांतियां और वैज्ञानिक सोच
अंतिम संस्कार के बाद अक्सर कुछ हड्डियां और दांत बच जाते हैं। लेकिन कुछ अनपढ़ लोग इन्हें ‘दिल’ या ‘हार्ट’ समझ लेते हैं, जबकि धीरज जैसे शिक्षित युवक इन भ्रांतियों को सिरे से नकारते हैं। वह कहते हैं, “हार्ट एक मांसपेशी है, वह नहीं बचती, केवल अस्थियां बचती हैं।”
निष्कर्ष: आधुनिकता के साथ परंपरा का संगम
धीरज शर्मा की कहानी एक प्रेरणा है उन युवाओं के लिए जो सोचते हैं कि सम्मान केवल बड़े शहरों में नौकरियों से ही आता है। पारंपरिक व्यवसाय को भी अगर ईमानदारी और श्रद्धा से किया जाए, तो वह भी न केवल सम्मानजनक होता है, बल्कि समाज के लिए उपयोगी भी होता है।
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