चूरू। राजस्थान की संस्कृति में रची-बसी गणगौर पूजा का उल्लास इन दिनों चूरू में खासतौर पर देखा जा रहा है। नवविवाहिताओं ने पारंपरिक परिधानों में सज-धजकर इस महोत्सव में भाग लिया और शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना की। यह पर्व विशेष रूप से नवविवाहिताओं के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है, जिसमें वे अपने वैवाहिक जीवन की खुशहाली की कामना करती हैं।

गणगौर पूजा: 16 दिनों की आस्था और परंपरा
गणगौर पूजा का प्रारंभ होली के अगले दिन से होता है और यह 16 दिनों तक चलती है। इस दौरान महिलाएं और विशेष रूप से नवविवाहिताएं मिट्टी की गणगौर बनाकर उनकी पूजा करती हैं। बीकानेर की राठौड़ी गणगौर का विशेष महत्व है और इसे शिव-पार्वती के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है।
पूजा की विधि और महत्व
गणगौर पूजा की विधि में सुबह-सुबह उठकर स्नान करने के बाद पिंडिया पूजा की जाती है, जिसमें पहले आठ दिन पिंडियों की पूजा होती है और अगले आठ दिन गणगौर माता की पूजा की जाती है। इसके बाद शीतलाष्टमी के दिन इस पूजा का समापन होता है। पूजा के अंतिम दिन गणगौर माता का विसर्जन कुएं या तालाब में किया जाता है, जिसे ‘धमकाना’ कहा जाता है।
नवविवाहिताओं के लिए विशेष महत्व
गणगौर पूजा नवविवाहिताओं के लिए खास महत्व रखती है। उनका मानना है कि यह पूजा वैवाहिक जीवन की समृद्धि, प्रेम और सुख-शांति के लिए की जाती है। एक नवविवाहिता ने बताया, ‘शादी नहीं हुई होती तो शायद मैं यह पूजा नहीं करती, लेकिन अब यह हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन गया है।’ इसी प्रकार कई नवविवाहिताएं इस परंपरा को आगे बढ़ाने और अपनी सास से सीखी हुई विधि को आगे बढ़ाने में गर्व महसूस करती हैं।
विसर्जन का अनोखा दृश्य
पूजा के अंतिम दिन गणगौर माता का विसर्जन बड़े उत्साह और उल्लास के साथ किया जाता है। महिलाएं गीत गाती हैं, नाचती हैं और पूजा के बाद गाजे-बाजे के साथ गणगौर को विदा किया जाता है। यह दृश्य जितना आनंदमयी होता है, उतना ही भावुक भी, क्योंकि 16 दिनों की आराधना के बाद गणगौर माता को विदा करना महिलाओं के लिए कठिन होता है।
गणगौर की लोकमान्यता और भविष्य
गणगौर पूजा का यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह राजस्थान की सांस्कृतिक धरोहर को भी जीवंत बनाए रखता है। नवविवाहिताओं से लेकर छोटी बच्चियों तक, सभी इस पर्व में बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं। यह परंपरा आज भी उतने ही आदर और विश्वास के साथ निभाई जाती है, जैसे सदियों पहले होती थी।